Ad

 भारतीय इतिहास में 'राम कुल' को सदा- सदा के लिए प्रतिष्ठित करने में उस परिवार की स्त्रियों का भी बहुत बड़ा योगदान है। महाराज दशरथ की चारों पुत्रवधुओं के सम्बंध में सोचें तो श्रद्धा से स्वतः शीश झुक जाता है। अपने कुल की प्रतिष्ठा के लिए क्या नहीं किया, पुत्रियों ने। 


उतना समर्पण, उतना त्याग शायद ही और कोई कर सके। कहते हैं, घर घरनी का होता है। घर की प्रतिष्ठा स्त्रियों के व्यवहार से ही तय होती है। पुरुष घर के बाहर रह कर जीवन की चुनौतियों में युद्ध करता है, तो स्त्रियां घर के भीतर की असामान्य परिस्थितियों में तपस्या करती हैं। और तब जा के बनता है वह घर, जिसे मन्दिर कहा जा सके। महाराज दशरथ के परिवार में भी यही हुआ।

 

लक्ष्मण अपने अनुज धर्म का पालन करते हुए चौदह, वर्ष बन के संकटों से जूझते रहे, तो उर्मिला भी चौदह बर्ष पति-बियोग सहते हुए. परिवार के प्रति समर्पित रहीं। महात्मा भरत अपने प्रण को निभाने के लिए राजमहल छोड़ कर नगर के बाहर कुटिया में रहे, तो मांडबी महल में रह कर भी तपस्विनी सी ही जीती रहीं। 


महाराज दशरथ की मृत्यु दो पत्रों के वनवास और तीसरे के स्वनिष्कासन के बाद बह उर्मिला और मांडबी जैसी देवियों की तपस्या ही थी कि एक पूरी तरह टूट चुका घर भी टूटा नहीं। चौदह वर्ष बाद जब राम लक्ष्मण लौटे तो अयोध्या उन्हें बेसी ही मिली जैसी वे छोड़ कर गए थे। 


केकेयी की एक भूल के कारण ही अयोध्या के राजकुल पर जिस तरह का सकट आया. था, क्‍या उसके बाद सामान्य परिवार में केकेयी जैसी स्त्री जी सकती थी? क्या सामान्य स्त्रियां अपने परिवार में ऐसी किसी स्त्री का सम्मान करेंगी? नहीं। पर उस कुल की स्त्रियों ने कभी केकेयी को प्रताड़ित नहीं किया, कभी उन्‍हें भला-बुरा नहीं कहा। 


केकेयी को किसी ने दोषी नहीं कहा, न पुत्रवधुओं ने, न हो कोशल्या या सुमित्रा ने यह मर्यादा पुरुषोत्तम के परिवार की स्त्रियों की मर्यादा थी। यह कर्तव्य निर्वदन का आदर्श है। विश्व इतिहास में ऐसा उदाहरण और कोई नहीं। किसी गृहस्थ व्यवित के महान होने में उसके पूरे परिवार के सदगुणों का योगदान होता है। जब पूरे परिवार के सत्कर्म इकट॒ठे होते हें, तो व्यक्त देवत्व को प्राप्त करता है। भगवान श्रीराम के साथ भी यही हुआ था। 

Ad